2007 में मायावती ने कैसे हासिल की थी सत्ता?
मायावती ने उत्तर प्रदेश की कई ऐसी सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशी को उतारा है, जो बीजेपी के समीकरण को बिगाड़ रहे हैं।
बसपा चीफ मायावती ने कई सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशी खड़े करके बीजेपी को मुसीबत में डाल दिया है।
बसपा प्रमुख मायावती ने जीत की संभावना को देखते हुए लोकसभा चुनाव में कई उच्च जाति और मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है।
बसपा प्रमुख की रणनीति उनके 2007 के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले की याद दिलाता है। यह वह फार्मूला था जब इसी के बल पर मायावती उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुई थीं, हालांकि, यह 2024 का लोकसभा चुनाव है, लेकिन फिर भी बसपा प्रमुख की रणनीति और उसके ब्राह्मण उम्मीदवार कहीं ना कहीं भाजपा को नुकसान पहुंचा रहे हैं। आईए जानते हैं ऐसी ही कुछ सीटों पर क्या स्थिति है जहां पर बसपा ने अपने ब्राह्मण उम्मीदवार उतार कर बीजेपी के लिए एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी।
ऐसे में हम बात उन प्रमुख लोकसभा सीटों की करते हैं जहां बसपा ने ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे हैं, वे सीटें हैं- फर्रुखाबाद, बांदा, धौरहरा, अयोध्या, बस्ती, अलीगढ़, उन्नाव, मिर्जापुर, फतेहपुर सीकरी, और अकबरपुर शामिल हैं।
अयोध्या-फैजाबाद से बसपा ने सच्चिदानंद पांडे को उतारा
अयोध्या लोकसभा सीट की बात करें तो यहां से बसपा ने सच्चिदानंद पांडे को मैदान में उतारा है, जबकि समाजवादी पार्टी ने अवधेश पासी और बीजेपी ने एक बार फिर लल्लू सिंह पर दांव खेला।
बसपा प्रत्याशी सच्चिदानंद पांडे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भाजपा के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे थे और इसी साल मार्च में बसपा में यह कहते हुए शामिल हुए कि भाजपा में उन्हें घुटन महसूस हो रही थी।
ऐसे में कहा जा सकता है कि बसपा प्रत्याशी सच्चिदानंद पांडे, भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह का खेल बिगाड़ सकते हैं। जिससे उन्हें पराजय का भी सामना करना पड़ सकता है।
बता दें, लल्लू सिंह ने जहां 2014 में 2,82,775 वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी वहीं 2019 में समाजवादी पार्टी उम्मीदवार से उनकी जीत का अंतर महज 65,000 रह गया था।
यानी भाजपा के 5 लाख से ज्यादा वोट की तुलना में समाजवादी पार्टी को 4,63,544 वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस के उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे थे।
अयोध्या-फैजाबाद लोकसभा सीट के महत्व को भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व भी पूरी तरजीह दे रहा है, क्योंकि फैजाबाद की प्रतिष्ठित सीट हार जाने से पार्टी के मनोबल को बड़ा झटका लग सकता है।
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिन पहले वहां पर राम मंदिर के दर्शन के बाद भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ एक खुली जीत में रोड शो किया था।
इस बारे में लल्लू सिंह ने कहा था कि 500 वर्षों से राम मंदिर बनवाने की जो लड़ाई थी वह प्रधानमंत्री मोदी जी की लीडरशिप में पूरी हुई है।
फैजाबाद अयोध्या के सभी मतदाता देख रहे हैं कि सीएम योगी जी ने यहां कितना विकास किया है और न सिर्फ यहां, बल्कि पूरे देश में भाजपा अपनी छाप छोड़ रही है।
अयोध्या सीट से इस बार अखिलेश यादव ने नया प्रयोग किया और सामान्य सीट होने के बावजूद समाजवादी पार्टी ने दलित उम्मीदवार दिया है।
अयोध्या की सबसे अधिक आबादी वाली पासी बिरादरी से उम्मीदवार दिया, जो दलित वर्ग में आती है। सपा ने छह बार के विधायक, मंत्री और समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे अपने सबसे मजबूत पासी चेहरे अवधेश पासी को चुनाव मैदान में उतारा।
बता दें, लल्लू सिंह के संविधान को लेकर एक बयान पर हंगामा भी खड़ा हो गया था और पूरे विपक्ष को भाजपा के खिलाफ एक मुद्दा मिल गया था। लल्लू ने कहा था कि 400 सीट इसलिए चाहिए, क्योंकि मोदी सरकार को संविधान बदलना है। सपा के दलित उम्मीदवार उतारने से एक नारा चल पड़ा। 'अयोध्या में मथुरा न काशी, सिर्फ अवधेश पासी'। लल्लू के बयान से अखिलेश के दलितों से राम की नगरी अयोध्या में फाइट टाइट हो गई है।
फर्रुखाबाद में भी बसपा ने उतारा ब्राह्मण प्रत्याशी
फर्रुखाबाद लोकसभा सीट की बात करें तो भाजपा ने यहां से एक बार फिर मुकेश राजपूत को मैदान में उतारा है। मुकेश राजपूत अगर इस बार चुनाव जीतते हैं तो यह उनकी हैट्रिक होगी।
वहीं सपा ने डॉक्टर नवल किशोर शाक्य को उतारा है, लेकिन बीजेपी के लिए सबसे बड़ी मुसीबत इस चुनाव में बसपा ने ब्राह्मण कार्ड खेल कर पैदा कर दी है।
बसपा प्रमुख मायावती ने यहां से क्रांति पांडे को टिकट देकर मुकेश राजपूत की राह में एक बड़ा रोड़ा खड़ा कर दिया है, जिसकी वजह से सदर का ब्राह्मण वोट क्रांति पांडे के पक्ष में और कुछ नवल किशोर शाक्य के साथ हो गया था,जो सपा को फायदा पहुंचाएगा।
दूसरी वजह यह भी है कि फर्रुखाबाद सदर का ब्राह्मण मतदाता बसपा नेता अनुपम दुबे पर की कई कार्रवाई से नाखुश है।
उसका शुरू से कहना रहा है कि वह मुकेश राजपूत के समर्थन में वोट नहीं करेगा।
अगर ऐसा हुआ है तो यह बीजेपी प्रत्याशी के लिए एक चिंता का विषय होगा, जो सपा प्रत्याशी को यानी कि डॉक्टर नवल किशोर शाक्य को फायदा पहुंचाएगा।
बता दें, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी मुकेश राजपूत को 5,69,880 वोट मिले थे, जबकि सपा प्रत्याशी मनोज अग्रवाल को 3,48,178 वोटों पर संतोष करना पड़ा था। वहीं तीसरे नंबर पर कांग्रेस के सलमान खुर्शीद को मात्र 55,258 वोट मिले थे।
फर्रुखाबाद 2014 लोकसभा चुनाव की बात करें तो यहां से मुकेश राजपूत ने जीत दर्ज की थी। उनको 4,06195 वोट, जबकि समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी रामेश्वर यादव को 2,55,693 वोट और बसपा प्रत्याशी जयवीर सिंह को 1,14521 मत प्राप्त हुए थे।
यहां से करीब 40 साल बाद पहला ऐसा मौका है जब पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद का परिवार मैदान से बाहर है।
फर्रुखाबाद लोक सभा सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी। इस सीट पर आठ बार कांग्रेस चुनाव जीत चुकी है।
वहीं चार बार भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल की है, जबकि दो बार समाजवादी पार्टी और दो बार जनता पार्टी ने भी सीट से चुनाव जीता है एक बार जनता दल और एक बार संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने भी इस सीट से जीत हासिल की है।
बांदा-चित्रकूट लोकसभा पर फंसी बीजेपी की सीट
बांदा चित्रकूट लोकसभा चुनाव की बात करें तो यहां पर भाजपा ने एक बार फिर सांसद आरके सिंह पटेल पर दांव खेला है।
आरके सिंह पटेल का टिकट फाइनल होने के बाद ब्राह्मण नेताओं में काफी नाराजगी की देखी गई थी, जो अंतिम समय यानी वोटिंग के वक्त तक जारी रही।
हालांकि, ब्राह्मणों की नाराजगी को खत्म करने के लिए बृजेश पाठक ने बांदा चित्रकूट में कई दिनों तक डेरा डाला था।
नाराजगी को भांपते हुए बीजेपी हाई कमान ने मौजूदा कन्नौज सांसद और भाजपा प्रत्याशी सुब्रत पाठक और कानपुर से बीजेपी प्रत्याशी रमेश अवस्थी को भेजा था। जो लगातार बांदा-चित्रकूट में ब्राह्मणों को बीजेपी के पक्ष में साधने कोशिश करते हुए देखे गए थे।
हालांकि, यह कितना कारगर साबित होता है, यह तो 4 जून को ही पता चलेगा, लेकिन यहां से बसपा ने ब्राह्मण कार्ड खेलकर बीजेपी की मुश्किलों में इजाफा कर दिया है। बसपा ने बांदा चित्रकूट लोकसभा सीट से मंयक द्विवेदी को मैदान में उतारा है।
ऐसे में कहा जा रहा है कि ब्राह्मण मतदाता मयंक द्विवेदी के साथ गया है, जो भाजपा प्रत्याशी के लिए किसी मुसीबत से कम नहीं है।
वहीं सपा ने यहां से कृष्णा पटेल को मैदान में उतारा है। इस लिहाज से यहां मामला त्रिकोणीय हो रहा है, लेकिन बसपा की तरफ से ब्राह्मण प्रत्याशी मयंक द्विवेदी के आने से भाजपा को नुकसान होता दिखाई दे रहा है।
मयंक द्विवेदी पहली बार चुनावी मैदान में उतरे हैं। मयंक के पिता नरेश द्विवेदी नरैनी विधानसभा सीट से विधायक रह चुके हैं।
वो मौजूदा समय में जिला पंचायत सदस्य हैं। उनको बसपा वोटों के अलावा सजातीय वोटों के मिलने की उम्मीद है।
वहीं आरके सिंह पटेल चित्रकूट के रहने वाले हैं। वो दूसरी बार बीजेपी के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे हैं। वह 2009 में सपा के सिंबल पर चुनाव लड़कर सांसद बने थे। इसके बाद उन्होंने पाला बदला और बसपा का दामन थाम लिया। इसके बाद मोदी लहर में 2014 में वह भाजपा में शामिल हो गए।
बांदा-चित्रकूट लोकसभा सीट में पांच विधानसभा क्षेत्र आते हैं। जिनमें बबेरू, नरैनी, बांदा, चित्रकूट और मानिकपुर शामिल है। इनमें से दो सपा के पास और दो बीजेपी के खाते में हैं, जबकि एक सीट मानिकपुर पर अपना दल का कब्जा है। बबेरू से विशंभर सिंह यादव, चित्रकूट से अनिल प्रधान पटेल सपा के विधायक हैं, जबकि नरैनी से ओम मणि वर्मा, बांदा से प्रकाश द्विवेदी बीजेपी के विधायक हैं।
2007 का यूपी विधानसभा चुनाव
अगर हम यूपी के 2007 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो यूपी के 2007 के विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले 9 अक्टूबर 2006 को बसपा के संस्थापक और मायावती के राजनीतिक गुरु कांशीराम की मृत्यु हो गई थी। कांशीराम के घर वालों ने उनकी मौत के लिए मायावती को जिम्मेदार ठहराया था। उन्होंने मायावती पर कांशीराम से नहीं मिलने देने का आरोप भी लगाया था।
कांशीराम की मौत के बाद मायावती पूरी तरह बसपा की सर्वेसर्वा हो चुकी थीं। तीन बार थोड़े-थोड़े समय तक मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती भी शायद अब तक प्रदेश के जीत के गणित को काफी हद तक समझ चुकी थी। उन्होंने कांशीराम के दलित और अल्पसंख्यक से राजनीतिक ताकत हासिल करने के फार्मूले को बदलते हुए सर्व समाज का नारा दिया।
ब्राह्मण पर हमला करने वाली मायावती ने बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को टिकट दिए। मायावती की यह नई सोशल इंजीनियरिंग रंग लाई। मायावती ने कांशीराम का फॉर्मूला बदल दिया, लेकिन बसपा को अपने दम पर सत्ता में लाने का सपना तो पूरा कर दिया। लगभग 22 साल की उम्र पूरी कर रही बसपा ने 206 सीटें जीतीं। प्रदेश में 1991 के बाद यानी 16 वर्षों के बाद मायावती के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी थी।
मायावती ने 2007 को प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर सत्ता हासिल की। इसके साथ ही राजनीतिक स्थिरता और जोड़-तोड़ से सरकार बनाने का दौर खत्म हुआ।पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था। इस चुनाव ने प्रदेश को स्थिर सरकार दी थी
उस वक्त कहा जाने लगा था कि कांशीराम ने बसपा को राजनीति से ब्राह्मणवाद मिटाने के नारे और दलितों को सत्ता का नेतृत्व का संकल्प लिया था। लेकिन उसी पार्टी ने सत्ता हासिल करने के लिए ब्राह्मणों को लुभाने के लिए हर कोशिश की।
2007 में 86 ब्राह्मणों को मायावती ने दिया था टिकट
2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा के प्रत्याशियों पर नजर दौड़ाएं तो उस वक्त मायावती ने 86 ब्राह्मण प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था। इसमें तीन दर्जन से ज्यादा जीते। बसपा ने 139 सीटों पर सवर्णों को प्रत्याशी बनाया था। इनमें 36 ठाकुर और अगड़ों में अलग-अलग जातियों के 17 अन्य उम्मीदवार थे। इसके अलावा पिछड़ों को 114, मुस्लिमों को 61 और दलितों को 89 टिकट दिए गए थे। जो मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को सही साबित करते थे और यही वजह थी कि 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती सत्ता के सिंहासन पर काबिज हुईं थीं।