UP Politics Bahubali: उत्तर प्रदेश में माफिया और बाहुबलियों का दबदबा कम होता नजर आ रहा है। एक वक्त था जब यूपी में माफिया और बाहुबलियों की तूती बोलती थी। इतना ही नहीं राजनीतिक दल बड़े स्तर पर माफियाओं और बाहुबलियों को संरक्षण देते थे। राजनीतिक संरक्षण की आड़ में यह बाहुबली शख्स किसी भी जमीन पर कब्जा करना, अपने तरीके से धन उगाही करना और शासन-प्रशासन से अपने तौर तरीकों से काम कराना शामिल रहा है। इन बाहुबलियों का खौफ इस कदर भी था कि बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारी भी इनके हिसाब से चलते थे, लेकिन बदलती समय की गति के साथ अब माफिया और बाहुबलियों का वो दबदबा नहीं है, जो एक वक्त होता था। अब इसको चाहे योगी सरकार कार्रवाई का नतीजा कहें या फिर अब पार्टियों ने बाहुबलियों और माफियाओं से परहेज करना शुरू कर दिया है।

आगामी लोकसभा चुनाव की बात करें तो इस समय तमाम राजनीतिक दलों ने माफियाओं ले दूरी बना ली है। एक वक्त इन्हीं माफियाओं का यूपी में खौफ होता था। इनके इशारे पर शासन-प्रशासन काम करता था। आइए इन्हीं कुछ माफियाओं और बाहुबलियों पर एक नजर डालते हैं
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अतीक अहमद
80 के दशक में अतीक अहमद ने अपराध की दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे। वो यूपी में अपराध की दुनिया का बादशाह बन चुका था। इसके बाद अतीक ने राजनीति में कदम रखा। साल 1989 में इलाहाबाद पश्चिमी सीट से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज कर विधानसभा पहुंचा। करीब तीन दशक तक प्रयागराज में अतीक की सियासी पारी का खेल चला। इसके बाद उसने संसद तरफ रूख किया और साल 2004 में संसद की दहलीज पर पहुंचा।
संसद पहुंचने के बाद अतीक अहमद ने इलाहाबाद पश्चिमी सीट अपने भाई अशरफ को सौंप दी। अशरफ को चुनावी मात देने वाले राजू पाल की हत्या तक करवा दी। वहीं, जब यूपी में योगी की सरकार बनी तो एक्शन शुरू हुआ। योगी के राज में अतीक के आतंक को खत्म कर दिया गया। ऐसे अतीक की इस पारी पर विराम लग गया।
मुख्तार अंसारी
पूर्वांचल के सबसे बड़े माफिया के रूप में मुख्तार अंसारी का नाम लिया जाता है। मुख्तार का भी राजनीति में पूरा दमखम रहा है। जेल के बाहर हो या जेल में मुख्तार जिस चुनाव में खड़ा होता था, जीत मिलती।
बात 90 के दशक की है। उस वक्त पूर्वांचल में बृजेश सिंह और मुख्तार अंसारी की दुश्मनी के चर्च पूरे देश में होने लगे। इसी वक्त मुख्तार की राजनीति में एंट्री होती है। मुख्तार बसपा के टिकट पर मऊ विधानसभा सीट से चुनाव लड़कर विधानसभा पहुंचा। इसके बाद गाजीपुर में अंसारी परिवार का कब्जा बना रहा।
बहुमत न होने पर फिर चुनाव,
वहीं, जब अंसारी परिवार के वर्चस्व को भाजपा नेता कृष्णानंद राय ने तोड़ा तो यह बात मुख्तार अंसारी को हजम नहीं हुई। साल 2005 में मुख्तार अंसारी ने भाजपा नेता कृष्णानंद राय की हत्या करवा दी। लेकिन यूपी में योगी सरकार आते ही मुख्तार अंसारी पर कार्रवाई शुरू हुई और उसको जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। इसके बाद अंसारी परिवार का रसूख कम हो गया।
धनंजय सिंह
जौनपुर में पूर्व सांसद धनंजय सिंह को रॉबिनहुड के तौर पर जाना जाता रहा है। धनंजय सिंह का भी पूर्वांचल में खासा वर्चस्व रहा। धनंजय सिंह कई पार्टियों में सांसद और विधायक रहे। 33 साल के आपराधिक इतिहास में पहली बार धनंजय सिंह को सजा हुई। इसी के साथ उनके राजनीतिक करियर पर भी संकट मंडराने लगा। दो बार के विधायक और एक बार के सांसद धनंजय सिंह को पिछले दिनों 7 साल की सजा सुनाई गई और वह जेल में हैं।
अमरमणि त्रिपाठी
अमरमणि त्रिपाठी का नाम यूपी के बाहुबली नेताओं में आता है। एक समय था जब पूर्वी यूपी में उनका खासा रसूख था। यूपी की राजनीति में वो कभी सपा तो कभी बसपा और कमल के फूल के साथ रहकर सत्ता का सुख भोगते रहे, लेकिन मधुमिता हत्याकांड के बाद उनकी सितारे गर्दिश में जाते चले गए। अगस्त, 2023 को अमरमणि त्रिपाठी 20 साल बाद जेल की सलाखों से बाहर निकले।
अमरमणि त्रिपाठी ने अपनी राजनीति के शुरुआत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से की, लेकिन इसके बाद वो कांग्रेस के साथ आ गए। उन्होंने कांग्रेस के बाहुबली नेता हरिशंकर तिवारी का अपना राजनीतिक गुरू बनाया और उनसे राजनीति के गुर सीखे। राजनीति में आने से पहले ही वो अपराध की दुनिया में एंट्री कर चुके थे। उनपर हत्या, लूट और मारपीट जैसे कई मामले दर्ज थे. कुछ ही समय में अमरमणि त्रिपाठी ने पूरे इलाके पर दबदबा कायम कर लिया।
अमरमणि त्रिपाठी ने साल 1996 में पहली बार महाराजगंज की नौतनवा विधानसभा सीट से कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इसके बाद वो लगातार चार बार इस सीट से विधायक रहे। 1997 में वो कांग्रेस को छोड़कर लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और फिर कल्याण सिंह की सरकार में मंत्री बन गए। साल 2001 में बस्ती के एक बिजनेसमैन के बेटे के अपहरण मामले में उनका नाम आया तो बीजेपी ने उनसे किनारा कर लिया।
विजय मिश्रा
80 के दशक में विध्यांचल क्षेत्र में विजय मिश्रा का नाम गूंजा। उस वक्त विजय मिश्रा पेट्रोल पंप का और ट्रक संचालन का काम करता था। दबदबा इतना था कि उसके ट्रकों को पुलिस भी रोकने से डरती थी। अपराध की दुनिया में नाम बढ़ा तो विजय मिश्रा ने राजनीति में जाने का मन बना लिया। कहा जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने विजय मिश्रा को राजनीति की राह दिखाई। इसके बाद विजय मिश्रा ज्ञानपुर सीट से ब्लॉक प्रमुख चुना गया। राजनीति में प्रभाव बढ़ता गया और धीरे-धीरे मुलायम सिंह के खास बन गए। कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव, विजय मिश्रा को अपने बेटे की तरह मानते थे। जेल में बंद विजय मिश्रा को मुलायम की सरकार बनते ही रिहा कर दिया गया था। योगी सरकार में विजय मिश्रा सलाखों के पीछे हैं।
पुष्कर सिंंह धामी के भी थे चहेतेहरिशंकर तिवारी
यूपी की बात की जाए तो यहां माफियागिरी की शुरुआत हरिशंकर तिवारी के हाथों हुई मानी जाती है। माफियाओं के बीच उन्हें बाबा का तमगा हासिल था। कोई भी बाहुबली हो लेकिन हरिशंकर तिवारी से भिड़ने की कोई जुर्रत नहीं करता था। माफिया जगत में वो हर किसी के लिए सम्मानीय थे।
हरिशंकर तिवारी को माफिया का गॉड फादर कहा जाने लगा। अपराध में आतंक बढ़ा तो हरिशंकर तिवारी ने राजनीति में कदम रखा. गोरखपुर विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति से विधानसभा तक सफर किया. कहा जाता है कि जेल में बंद रहने के दौरान पहली बार वह चुनाव जीते। ऐसा कमाल उस समय तक कोई और नहीं कर पाया था। योगी सरकार आने के बाद हरिशंकर तिवारी का परिवार हाशिये पर है।
रामाकांत और उमाकांत यादव
रामाकांत और उमाकांत यादव को पूर्वांचल में अच्छा खासा दबदबा है। यादव वोटों पर मजबूत पकड़ रखने वाले चार बार के सांसद और पांच बार के विधायक बाहुबली नेता रमाकांत यादव जेल में बंद हैं। इस बार चुनाव में उनका कोई प्रभाव नहीं रहेगा। ज्ञानपुर के पूर्व विधायक विजय मिश्र की हत्या के मामले में जेल में बंद उमाकांत यादव भी आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं।
ऐसे में कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों ने भी बाहुबलियों से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया है। राजनीतिक जानकार बताते हैं कि 1970 से लेकर 2017 तक पूर्वांचल से लेकर बुंदेलखंड और पश्चिम इलाके तक बाहुबलियों का बोलबाला हुआ करता था। यह न सिर्फ चुनाव लड़ते थे, बल्कि पार्टियों को ब्लैकमेल भी करते थे और चुनाव को बाधित करते थे।

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